इंदौर। खरगोन जिले के सनावद में गरमा-गरमा पानी में उबलते हुए चावल, आसपास लगी श्रद्धालुओं की भीड़, बड़े हाड़े के पास बाल्टी लेकर खड़े श्रद्धालु। जैसे ही लूटने की अनुमति मिली श्रद्धालु गरमा गरम चावल की प्रसादी को लेने के लिए टूट पड़े। नीचे भभकती आग के बावजूद हर कोई बाल्टी लेकर गरम हाड़े से चावल निकालने की कोशिश करता रहा। ये नजारा था पीरानपीर-शीतला माता मेले में सरकारी डेग लुटाई का। - मिली जानकारी अनुसार हजरत जमालुद्दीन शाह बाबा की दरगाह की टेकड़ी के नीचे डेग लुटाई गई। महज 2 से 3 मिनट में डेढ़ क्विंटल चावल की डेग श्रद्धालु लूट कर ले गए। नगर पालिका द्वारा दी गई 151 किलो चावल, 40 किलो घी, गुड, काजू, बादाम सहित अन्य सामग्री से डेग तैयार की गई। समाज के शहजाद खान ने बताया अजमेर शरीफ के बाद सनावद की दरगाह पर ही सरकारी डेग लुटाने का आयोजन होता है। इसके अलावा देशभर में यह आयोजन कहीं नहीं होता। - सरकारी डेग लुटाने के आयोजन में सवा मन (41 किलो) मीठे चावल को सूखे मेवे के साथ एक बड़े से हाड़े में पकाया जाता है। भोग लगाने के बाद लुटने का हुक्कम दिया जाता है। इसके बाद लोग बर्तनों में मीठे चावल की प्रसादी लुटते हैं। गर्म होने के बाद भी आज तक कोई दुर्घटना नहीं हुई। आयोजन में शहर आसपास के क्षेत्र से लोग शामिल होते हैं। 9 पीढ़ी से कर रहे हैं बाबा की सेवादारी - दरगाह के खादिम अफजल अली ने बताया हमारा परिवार 9 पीढ़ियों से बाबा की सेवादारी कर रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह परंपरा हमारे परिवार के लोग ही संभाल रहे हैं। इसकी शुरुआत कदीख्ल्ला खां ने की थी। इसके बाद से उनके बेटे परिवार के लोग ही यह परंपरा निभा रहे हैं। उन्होंने बताया दरगाह के पास दर्शन के दौरान सिर पर टोपी या कपड़ा लगाकर जाने की परंपरा है। इसका निर्वाह भी किया जा रहा है। होल्कर राज्य के राजस्व मंत्री रूपानानक ने शुरू किया था मेला - हजरत जमालुद्दीन शाह कादरी रेहमतुल्लाह अलैह के नाम से वर्ष 1906 से होल्कर राज्य के राजस्व मंत्री रूपानानक चंद के आदेश से मेला लगने की परंपरा शुरू हुई थी, जो आज तक जारी है। उस दौरान सनावद का नाम गुलशानाबाद था। करीब 112 साल से लगातार यह मेला लगाया जा रहा है। करीब 20 साल पहले पीरानपीर बाबा के साथ शीतला माता का नाम जुड़ने से यह मेला राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बना है। आपातकाल के दौरान मेला लगाने को लेकर संशय था। क्योंकि बजट नाममात्र का था। तब नगर पालिका ने लोगों व्यापारियों के साथ बैठक कर निर्णय लिया कि परंपरा को तोड़ा नहीं जाएगा। कम बजट होने से सिर्फ कव्वाली का आयोजन किया जाए।