खरगौन - कहते हैं कि सदियों तक गरीब-गुरबा किसान खेतों में बरसात का पानी टांकों, कुंडियों, कुईयों में संजोकर रखते थे और मेढ़बंधान कर खेतों की बहुमूल्य मिट्टी को बरसात के पानी के साथ बहने से रोकते थे। खेत का पानी खेत में और खेत की मिट्टी खेत में रोकने से संचित जल का उपयोग करते थे और खेत में रूकी मिट्टी से भरपूर फसल लेते थे। अमीर-उमरा किसान भी ऐसा ही करते थे। अब लोगों ने पारंपरिक ज्ञान को बिसरा दिया है। वर्षा का निर्मल, शुद्ध जल खेतों से यूंही बह जाता है और साथ में खेतों की उपजाऊ मिट्टी भी बहा ले जाता है। लेकिन राज्य सरकार की मनरेगा की भूमि शिल्प योजना के जरिए इस पुरातन जल संसाधन तकनीक को पुनः अपनाने के लिए किए गए प्रयास जिले में रंग लाने लगे हैं। जिला मुख्यालय से करीब 28 किलोमीटर दूर स्मार्ट विलेज के रूप में विकसित हो रहे ग्राम बिठेर में 9 काश्तकारों द्वारा दो साल पूर्व शुरू किया गया मेढ़बंधान का यह काम आज एक आंदोलन की शक्ल ले चुका है। करीब 1803 लोगों की आबादी वाले इस गांव के कई काश्तकारों ने मनरेगा की मदद से अपने-अपने खेतों की मेढ़ें बांधकर बरसात के पानी में बहने वाली खेतों की मिट्टी को न केवल रोक दिया, बल्कि फसल का उत्पादन भी तिगुना कर लिया। पहले कम उत्पादन होने की वजह से इन काश्तकारों को दूसरों के यहां मजदूरी करने जाना पड़ता था अथवा कर्ज लेना पड़ता था, जो अब उन्होंने बंद कर दिया है। मनरेगा की भूमि शिल्प योजना और जिला प्रशासन की प्रेरणा से इन काश्तकारों ने अपने खेतों में मिट्टी रोकने के परंपरागत तरीके को आजमाया। यकीनन, उनकी कोशिशें रंग र्लाइं। बरसात में जो मिट्टी यूंही बह जाती थी, वह अब खेतों में ही है। पहले जहां खेत में गढ्डे थे, वहां मेढ़बंधान से खेत की जमीन समतल हो गई और जहां साल में एक फसल होती थी, वहां तीन से चार फसलें होने लगी और फसल का उत्पादन बढ़कर तिगुना हो गया है। पहले जो खाद बरसात के पानी के साथ बह जाता था, वह अब खेत में ही रहता है। इन काश्तकारों के खेतों में मेढ़बंधान व खेत का पानी खेत में रोकने जैसे पारंपरिक उपायों के कारण फसल में हरियाली बनी रहती है और कम बरसात के बावजूद उनके चेहरे भी चमक रहे होते हैं। अब जरा इनमें से 47 वर्षीय काश्तकार श्री नरसिंह नायक का किस्सा सुनें। पहाड़ों की ढलाननुमा जमीन पर उनके खेत में बरसात का पानी सारी मिट्टी बहा ले जाता था। एक एकड़ भूमि से करीब तीन से चार ट्राली मिट्टी बह जाती थी। जितनी बार बरसात होती थी, उतनी बार जुताई करनी पड़ती थी, क्योंकि हर बार बरसात के पानी के साथ खेत की मिट्टी बह जाती थी। जमीन पर केवल गढ़डे, कंकड़ दिखते थे। मेहनत और लागत अधिक आती थी और उत्पादन कम होता था। इसलिए नरसिंह को कर्ज भी लेना पड़ा था। प्रेरित होने और मनरेगा के तहत मदद मिलने पर उन्होंने अपने खेत में मेढ़ बनाने की ठान ली। नरसिंह नायक ने ढाई एकड़ में मेढ़बांध ली। मेढ़बंधान की बदौलत उनका खेत सबसे अधिक उत्पादन देने वाला खेत बन गया है। मेढ़ बांधने वाले दीगर काश्तकारों के जीवन में भी समृद्धि आने लगी है। आज नरसिंह नायक गांव के संपन्न किसान हैं और साल में चार फसलें ले रहे हैं। मेढ़बंधान से खेतों में घुसने वाले मवेशियों से भी सुरक्षा मिल गई है। उनका बेटा पुणे में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहा है। नरसिंह कहते हैं, हमें पारंपरिक तरीकों की सुध दिला दी गई है। परंपरागत नुस्खों की बदौलत हमारा उत्पादन कई गुना बढ़ गया है और जमीन समतल हो गई है। खेतों की जमीन के जल स्तर में वृद्धि से नमी बनी रहती है।